अर्थात गीता में बताये अनुसार अपना कर्म पूर्ण समर्पण से करें और फल की चिंता न करें।
राजनांदगांव में बचपन से बाल समाज गणेश समिति द्वारा अपने घर के सामने कराये गये महात्माओं के प्रवचन को मैं सुनता रहा। वे महात्मा कहानियों के माध्यम से बहुत-सी बातें समझाते थे जो आज भी समयोचित है। कई सवाल के जवाब बचपन में झांकने पर मिल जाते है ।
एक बार मैं अपने स्व. पिता के परम मित्र श्री महेश्वर प्रसाद जी पांडे को अपने यहां पूजा के लिये भिलाई बुलाया था। वे कर्मकाण्ङी विद्वान है। चर्चा में अचानक मुझसे एक सवाल निकल गया, ईश्वर दयालु है या न्यायप्रिय है ? इस चर्चा में कई लोग शामिल हुए ।
अब मैं, महेश्वर महाराज जी, और अन्य सभी यह मान गये थे कि ईश्वर दयालु है और न्यायप्रिय भी ? सब बड़ी उलझन में थे। अचानक मुझे बचपन मे एक संत कि बतार्इ्र बात याद आ गई उन्होने बताया था एक व्यक्ति ऊपर के सवाल का जवाब न मिलने पर बहुत दुखी था। वह एक मौलवी के पास गया। मौलवी ने बताया कि अल्ला रहम दिल जरुर है पर वे न्यायप्रिय है। गलत करने वाले को सजा देते है और अच्छा करने वाले को आबाद करते है। फिर वह व्यक्ति चर्च के पादरी के पास गया तो उसने कहा - ईश्वर न्याय जरुर करता है पर वह दयालु होता है। प्रभु ईशु ने तो अपने को सूली चढ़ाने वालो के लिए भी ईश्वर से दया मांगी। अब उस व्यक्ति को यह बात समझ में आ गयी की ईश्वर दयालु और न्यायप्रिय दोनो है। पर कब और कैसे ? वह व्यक्ति संत गोन्दवलकर जी महाराज के पास पहँचा। तब महाराज ने उसे बताया की ईश्वर सकाम भक्तो के लिए न्यायप्रिय तथा निष्काम भक्तॉ के लिए दयालु है। अर्थात यदि कोई ईश्वर की पूजा आराधना कर उससे प्रतिफल की आशा करता है तो प्रभु गुण दोष के आधार पर उसे न्याय देते है और यदि कोई स्वयं को समर्पित करें बिना स्वार्थ के ईश्वर की आराधना करता है तो प्रभु उस पर दया भाव रखते है। मेरी यह बात सुनकर उपस्थित सभी लोगॉ ने गर्म जोशी से जोरदार तालियाँ बजाई।
सचमुच यदि हम केवल फल प्राप्ति के लिए कार्य करते है तो प्रकृति गुण दोष के आधार पर प्रतिफल देती है।
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